जर्मनी की संसद के निचले सदन ने 20 अप्रैल 2023 को ऊर्जा सुरक्षा अधिनियम में बदलावों को मंजूरी दी जिसने बिना राष्ट्रीयकरण के श्वेट रिफाइनरी में रूसी ऊर्जा कंपनी रोसनेफ्ट की हिस्सेदारी को अवलिंब बेचने का मार्ग प्रशस्त किया।
इस हफ्ते की शुरूआत में रोसनेफ्ट ने जर्मन सरकार के ट्रस्टीशिप के विस्तार के खिलाफ मुकदमा दायर किया और आदेश के पहले छह महीनों के दौरान हुए वित्तीय नुकसान के मुआवजे के लिए याचिका दायर की।
रूस-यूक्रेन संघर्ष के विशेष सैन्य अभियान चरण के शुरू होने के बाद से ही जर्मनी और यूरोपीय संघ तथा उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) में इसके साझेदार रूस के खिलाफ छद्म युद्ध में लगे हुए हैं। पश्चिम के सभी राष्ट्रों ने रूस पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं और बड़े पैमाने पर उससे अपने आर्थिक संबंध तोड़ लिए हैं।
इसके अलावा, इन देशों ने यूक्रेन में रूस को फंसाने के प्रयास में यूक्रेन को काफी सैन्य सहायता भेजी है।
रोसनेफ्ट की संपत्ति को हथियाने का यह नवीनतम कदम रूस के खिलाफ जर्मन सरकार की ओर से तनाव बढ़ाने का कदम है।
सन् 1993 में स्थापित रोसनेफ्ट लगभग 111 बिलियन डॉलर के राजस्व के आंकड़ों के साथ रूस की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक है। वैश्विक स्तर पर, रोसनेफ्ट अपने आप में एक टाइटन (NS:TITN) है, जो दुनिया भर के 20 से अधिक देशों में संचालन के साथ राजस्व के मामले में 24वें स्थान पर है।
जर्मनी ऐतिहासिक रूप से अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए रूस पर निर्भर रहा है। रूस द्वारा यूक्रेन में अपना विशेष सैन्य अभियान शुरू करने से पहले जर्मनी में 55 प्रतिशत गैस रूस से आयात की जाती थी। हालांकि, यूक्रेन में रूस की सैन्य घुसपैठ के बाद, जर्मन सरकार अपने प्राथमिक गैस आपूर्तिकर्ता होने के लिए वैकल्पिक देशों को खोजने के लिए पुरजोर कोशिश कर रही है।
अब तक इसने नीदरलैंड और नार्वे से गैस की खरीद बढ़ा दी है जबकि अमेरिका और कतर से तरलीकृत प्राकृतिक गैस (एलएनजी) के आयात के लिए अपने बुनियादी ढांचे के विस्तार के लिए बेसब्री से काम कर रह है।
रूसी तेल और गैस पर अपनी निर्भरता में भारी कमी करने के बावजूद ऊर्जा की बढ़ती कीमतों के कारण जर्मनी को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। एलियांज ट्रेड द्वारा जनवरी में जारी एक अध्ययन के अनुसार, जर्मन उद्योग को 2021 की तुलना में 2023 में ऊर्जा के लिए लगभग 40 प्रतिशत अधिक भुगतान करना पड़ सकता है। अमेरिकी एलएनजी जैसे वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत भी अधिक महंगे हैं। एलएनजी की ओर मुड़ना, विशेष रूप से फ्लोटिंग टर्मिनलों की खरीद और रखरखाव, जर्मनी के लिए महंगा और समय साध्य होगा।
जर्मनी ने 24 फरवरी 2022 से अब तक यूक्रेन को 14.2 अरब यूरो से अधिक की सहायता प्रदान की है। रूस के यूक्रेन पर आक्रमण से पहले जर्मनी ने रूस के साथ अपने राजनयिक संबंधों को बड़ी समझदारी से संतुलित बनाए रखा था जिसकी बड़े पैमाने पर निंदा की जा रही थी। उसने 2014 में क्रीमिया के अधिग्रहण और डोनेट्स्क तथा लुगांस्क के विद्रोही क्षेत्रों को सैन्य सहायता प्रदान करने के लिए रूस पर प्रतिबंध भी लगाए थे, लेकिन इसके बावजूद स्लाविक परमाणु शक्ति के साथ ऊर्जा व्यापार संबंधों को बड़े जतन से कायम रखा था।
तत्कालीन जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल ने मिन्स्क समझौते कराने में भूमिका निभाई थी। यह अंतर्राष्ट्रीय समझौतों का एक ऐसा सेट था जिसका उद्देश्य रूसी समर्थित अलगाववादी समूहों और यूक्रेनी सशस्त्र बलों के बीच डोनबास में युद्ध को समाप्त करना था।
मौलिक मिन्स्क समझौता विफल हो गया और उसके बाद एक संशोधित समझौता, मिन्स्क-2 हुआ जिसे 12 फरवरी 2015 को समाप्त कर दिया गया। इस समझौते में उपायों की एक श्रंखला शामिल थी, जिसमें युद्धविराम, डोनबास की सीमा से भारी हथियारों की वापसी, युद्ध-बंदियों की रिहाई और यूक्रेन में डोनबास के कई हिस्सों को स्वायत्तता प्रदान करने वाले संवैधानिक सुधार शामिल थे। हालांकि समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद लड़ाई में कमी आई, लेकिन यह पूरी तरह से कभी बंद नहीं हुई। इसके अलावा, मिन्स्क समझौते के प्रावधान पूरी तरह से लागू नहीं किए गए थे।
रूस को अंदेशा था कि पश्चिमी देश मिन्स्क समझौतों को लागू करने के लिए भलमंशाहत से काम नहीं करेंगे और काफी हद तक यह आशंका सही साबित हुई जब मर्केल और पूर्व फ्रांसीसी राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने खुलासा किया कि उन्होंने मिन्स्क समझौतों का पालन नहीं किया और सिर्फ समय लेने के लिए उनका इस्तेमाल किया ताकि यूक्रेन खुद को राजनीतिक और सैन्य रूप से पुनर्गठित कर सके और दोनबास के नियंत्रण से बाहर चले गए क्षेत्र जो विद्रोहियों के कब्जे में थे वहां उनके खिलाफ एक संभावित जवाबी कार्रवाई शुरू की जा सके।
मिन्स्क समझौते को लागू करने में इन विफलताओं के परिणामस्वरूप, रूस 24 फरवरी 2022 को पूर्ण सैन्य कार्रवाई करने के लिए मजबूर हो गया।
मोटे तौर पर, रूस के प्रति जर्मनी की नवीनतम शत्रुतापूर्ण कार्रवाइयां इंगित करती हैं कि यह भू-राजनीतिक ²ष्टि से एंग्लो-अमेरिकन प्रभाव की ओर तेजी से बढ़ रहा है। इस मामले में अपने उत्तराधिकारी अमेरिका के साथ ही ब्रिटेन की रणनीति पूरे यूरोपीय महाद्वीप में फूट डालो और राज करो को लागू करना रहा है। इस रणनीति का एक पहलू रूस को यूरोपीय व्यवस्था से पूरी तरह बाहर रखना रहा है।
रूस ने सोवियत संघ के विघटन के बाद पश्चिम के साथ संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में धीरे-धीरे कदम उठाए थे, लेकिन एक बार जब इसने जॉर्जिया (2008) और यूक्रेन (2014 से वर्तमान तक) में अपने भू-राजनीतिक हितों पर जोर देना शुरू किया, तो यह तेजी से पश्चिम से अलग हो गया।
रूस-यूक्रेन संघर्ष ने केवल इस प्रवृत्ति को तेज किया है - रूस अब पूर्व की ओर देख रहा है और चीन के साथ एक मजबूत रणनीतिक साझेदारी बना रहा है। यदि जर्मनी और उसके पश्चिमी सहयोगियों ने रूस पर प्रतिबंध लगाना जारी रखा और सैन्य सहायता के निरंतर प्रावधान के माध्यम से यूक्रेन में युद्ध को लंबा खींचा तो चीनी-रूसी गठबंधन और गहरा ही होगा। इसके अतिरिक्त, रूस के साथ ऊर्जा व्यापार पूरी तरह समाप्त करने से पूरे यूरोपीय महाद्वीप में जीवन स्तर में महत्वपूर्ण गिरावट आ सकती है।
अंतत: रूस के खिलाफ लंदन और वाशिंगटन की भू-राजनीतिक रणनीति का अनुसरण करके यूरोप की बड़ी हार होगी।
(जोस नीनो एक लेखक और राजनीतिक संचालक हैं। उनकी रुचि इतिहास, अर्थशास्त्र और राजनीति में है। उन्होंने अमेरिकन इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक रिसर्च, केमैन फाइनेंशियल रिव्यू और मिसेस इंस्टीट्यूट जैसे संगठनों के लिए लिखा है और टॉम वुड्स शो जैसे हाई प्रोफाइल पॉडकास्ट का हिस्सा रहे हैं। व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं)
--आईएएनएस
एकेजे